24-03-85  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

अब नहीं तो कब नहीं

श्रेष्ठ राज्य भाग्य का अधिकार देने वाले बापदादा बोले

आज लवफुल और लाफुल बापदादा सभी बच्चों के खाते को देख रहे थे। हर एक का जमा का खाता कितना है? ब्राह्मण बनना अर्थात् खाता जमा करना। क्योंकि इस एक जन्म के जमा किये हुए खाते के प्रमाण 21 जन्म प्रालब्ध पाते रहेंगे। न सिर्फ 21 जन्म प्रालब्ध प्राप्त करेंगे लेकिन जितना पूज्य बनते हो अर्थात् राज्य पद के अधिकारी बनते हो, उसी हिसाब अनुसार आधाकल्प भक्तिमार्ग में पूजा भी राज्य भाग्य के अधिकार के हिसाब से होती है। राज्य पद श्रेष्ठ है तो पूज्य स्वरूप भी इतना ही श्रेष्ठ होता है। इतनी संख्या में प्रजा भी बनती है। प्रजा अपने राज्य अधिकारी विश्व-महाराजन वा राजन को मात पिता के रूप से प्यार करती है। इतना ही भक्त आत्मायें भी ऐसे ही उस श्रेष्ठ आत्मा को वा राज्य अधिकारी महान आत्मा को अपना प्यारा ईष्ट समझ पूजा करते हैं। जो अष्ट बनते हैं वह ईष्ट भी इतने ही महान बनते हैं। इस हिसाब प्रमाण इसी ब्राह्मण जीवन में राज्य-पद और पूज्य-पद पाते हो। आधा कल्प राज्य-पद वाले बनते हो और आधा कल्प पूज्य-पद को प्राप्त करते हो। तो यह जन्म वा जीवन वा युग सारे कल्प के खाते को जमा करने का युग वा जीवन है। इसलिए आप सभी का एक स्लोगन बना हुआ है, याद है? - ‘अब नहीं तो कब नहीं’। यह इस समय के इसी जीवन के लिए ही गाया हुआ है। ब्राह्मणों के लिए भी यह स्लोगन है तो अज्ञानी आत्माओं के लिए भी सुजाग करने का यह स्लोगन है। अगर ब्राह्मण आत्मायें हर श्रेष्ठ कर्म करने के पहले श्रेष्ठ संकल्प करते हुए यह स्लोगन सदा याद रखें कि - अब नहीं तो कब नहीं, तो क्या होगा? सदा हर श्रेष्ठ कार्य में तीव्र बन आगे बढ़ेंगे। साथ-साथ यह स्लोगन सदा उमंग-उत्साह दिलाने वाला है। रूहानी जागृति स्वत: ही आ जाती है। अच्छा फिर कर लेंगे, देख लेंगे। करना तो है ही। चलना तो है ही। बनना भी है ही। यह साधारण पुरूषार्थ के संकल्प स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं। क्योंकि स्मृति आ गई कि - अब नहीं तो कब नहीं। जो करना है वह अब कर लो। इसको कहा जाता है - तीव्र पुरूषार्थ।

समय बदलने से कभी शुभ संकल्प भी बदल जाता है। शुभ कार्य जिस उमंग से करने का सोचा वह भी बदल जाता है। इसलिए ब्रह्मा बाप के नम्बरवन जाने की विशेषता क्या देखी? कब नहीं, लेकिन ‘अब करना है’। ‘तुरंत दान महापुण्य’ कहा जाता है। अगर तुरंत दान नहीं किया, सोचा, समय लगाया, प्लैन बनाया फिर प्रैक्टिकल में लाया तो इसको तुरंत दान नहीं कहा जायेगा। दान कहा जायेगा। तुरंत दान और दान में अन्तर है। तुरंत दान महादान है। महादान का फल महान होता है। क्योंकि जब तक संकल्प को प्रैक्टिकल करने में सोचता है - अच्छा करूँ, करूँगा, अभी नहीं, थोड़े समय के बाद करूँगा। अब इतना कर लेता हूँ यह सोचना और करना इस बीच में जो समय पड़ जाता है उसमें माया को चांस मिल जाता है। बापदादा बच्चों के खाते में कई बार देखते हैं कि सोचने और करने के बीच में जो समय पड़ता है उस समय में माया आ जाती है तो बात भी बदल जाती है। मानो कभी तन से, मन से सोचते हैं यह करेंगे लेकिन समय पड़ने से जो 100 प्रतिशत सोचते हैं करने के लिए वह बदल जाता है। समय पड़ने से माया का प्रभाव होने के कारण मानो 8 घण्टा लगाने वाला 6 घण्टा लगायेगा। 2 घण्टा कट हो जायेगा। सरकमस्टांस ही ऐसे बन जायेंगे। इस प्रकार धन में सोचेगा 100 करना है और करेगा 50 इतना भी फर्क पड़ जाता है। क्योंकि बीच में माया को मार्जिन मिल जाती है। फिर कई संकल्प आते हैं। अच्छा 50 अभी कर लेते हैं - 50 फिर बाद में कर लेंगे। है तो बाप का ही। लेकिन तन-मन-धन सभी का जो ‘तुरंत दान वह महापुण्य होता है’। देखा है ना -बलि भी चढ़ाते हैं तो महाप्रसाद वही होता जो तुरंत होता। एक धक से झाटकू बनते हैं उसको ‘महाप्रसाद’ कहा जाता है। जो बलि में चिल्लाते-चिल्लाते सोचते-सोचते रह जाते हैं वह महाप्रसाद नहीं। जैसे वह बकरे को बलि चढ़ाते हैं, वह बहुत चिल्लाता है। यहाँ क्या करते? सोचते हैं, ऐसा करें वा न करें। यह हुआ सोचना। चिल्लाने वाले को कभी भी महाप्रसाद के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। ऐसे ही यहाँ भी तुरंत दान महापुण्य यह जो गायन है वह इस समय का है। अर्थात् सोचना और करना तुरंत हो। सोचते-सोचते रह नहीं जावें। कई बार ऐसे अनुभव भी सुनाते हैं। सोचा तो मैंने भी यही था लेकिन इसने कर लिया, मैंने नहीं किया। तो जो कर लेता है वह पा लेता है। जो सोचते-सोचते रह जाता, वह सोचते-सोचते त्रेतायुग तक पहुँच जाता है। सोचते-सोचते रह जाता है। यही व्यर्थ संकल्प है कि तुरंत नहीं करो। शुभ कार्य शुभ संकल्प के लिए गायन है - ‘तुरंत दान महापुण्य’। कभी-कभी कोई बच्चे बड़ा खेल दिखाते हैं। व्यर्थ संकल्प इतना फोर्स से आते जो कण्ट्रोल नहीं कर पाते। फिर उस समय कहते क्या करें, हो गया ना। रोक नहीं सकते। जो आया वह कर लिया लेकिन व्यर्थ के लिए कण्ट्रोलिंग पावर चाहिए। एक समर्थ संकल्प का फल पद्मगुणा मिलता है। ऐसे ही एक व्यर्थ संकल्प का हिसाब-किताब - उदास होना, दिलशिकस्त होना वा खुशी गायब होना वा समझ नहीं आना कि मैं क्या हूँ, अपने को भी नहीं समझ सकते - यह भी एक का बहुत गुणा के हिसाब से अनुभव होता है। फिर सोचते हैं कि था तो कुछ नहीं। पता नहीं क्यों खुशी गुम हो गई। बात तो बड़ी नहीं थी लेकिन बहुत दिन हो गये हैं - खुशी कम हो गई है। पता नहीं क्यों अकेलापन अच्छा लगता है! कहाँ चले जावें, लेकिन जायेंगे कहाँ? अकेला अर्थात् बिना बाप के साथ अकेला तो नहीं जाना है ना। ऐसे भले अकेले हो जाओ लेकिन बाप के साथ से अकेले कभी नहीं होना। अगर बाप के साथ से अकेले हुए, वैरागी, उदासी यह तो दूसरा मठ है। ब्राह्मण जीवन नहीं। कम्बाइण्ड हो ना। संगमयुग कम्बाइण्ड रहने का युग है। ऐसी वण्डरपुल जोड़ी तो सारे कल्प में नहीं मिलेगी। चाहे लक्ष्मी नारायण भी बन जाएँ लेकिन ऐसी जोड़ी तो नहीं बनेगी ना! इसलिए संगमयुग का कम्बाइण्ड रूप है। यह सेकण्ड भी अलग नहीं हो सकता। अलग हुआ और गया। अनुभव है ना ऐसा! फिर क्या करते? कभी सागर के किनारे चले जाते, कब छत पर, कब पहाड़ों पर चले जाते। मनन करने के लिए जाओ, वह अलग बात है। लेकिन बाप के बिना अकेले नहीं जाना है। जहाँ भी जाओ साथ जाओ। यह ब्राह्मण जीवन का वायदा है। जन्मते ही यह वायदा किया है ना! साथ रहेंगे साथ चलेंगे। ऐसे नहीं जंगल में वा सागर में चले जाना है। नहीं। साथ रहना है, साथ चलना है। यह वायदा पक्का है ना सभी का? दृढ़ संकल्प वाले सदा सफलता को पाते हैं। दृढ़ता सफलता की चाबी है। तो यह वायदा भी दृढ़ पक्का किया है ना। जहाँ दृढ़ता सदा है वहाँ सफलता सदा है। दृढ़ता कम तो सफलता भी कम।

ब्रह्मा बाप की विशेषता क्या देखी! यही देखी ना - तुरंत दान...कभी सोचा कि क्या होगा! पहले सोचूँ पीछे करूँ, नहीं। तुरंत दान महापुण्य के कारण नम्बरवन महान आत्मा बनें। इसलिए देखो नम्बरवन महान आत्मा बनने के कारण कृष्ण के रूप में नम्बरवन पूजा हो रही है। एक ही यह महान आत्मा है जिसकी बाल रूप में भी पूजा है। बाल रूप भी देखा है ना। और युवा रूप में राधे कृष्ण के रूप में भी पूजा है। और तीसरा गोप गोपियों के रूप में भी गायन पूजन है। चौथा लक्ष्मी नारायण के रूप में। एक यह ही महान आत्मा है जिसके भिन्न-भिन्न आयु के रूप में भिन्न-भिन्न चरित्र के रूप में गायन और पूजन है। राधे का गायन है लेकिन राधे को बाल रूप में कभी झूला नहीं झुलायेंगे। कृष्ण को झुलाते हैं। प्यार कृष्ण को करते हैं। राधे का साथ के कारण नाम जरूर है। फिर भी नम्बर दो और एक में फर्क तो होगा ना। तो नम्बरवन बनने का कारण क्या बना? - ‘‘महा पुण्य’’। महान पुण्य आत्मा सो महान पूज्य आत्मा बन गई। पहले भी सुनाया था ना कि आप लोगों की पूजा में भी अन्तर होगा। कोई देवी देवताओं की पूजा विधिपूर्वक होती है और कोई की ऐसे काम चलाऊ भी होती है। इसका तो फिर बहुत विस्तार है। पूजा का भी बहुत विस्तार है। लेकिन आज तो सभी के जमा के खाते देख रहे थे। ज्ञान का खजाना, शक्तियों का खजाना, श्रेष्ठ संकल्पों का खजाना कहाँ तक जमा किया है और समय का खजाना कहाँ तक जमा किया है। यह चारों ही खजाने कहाँ तक जमा किये हैं? यह खाता देख रहे थे। तो अभी इन चारों ही बातों का खाता अपना चेक करना। फिर बापदादा भी सुनायेंगे कि रिजल्ट क्या देखी और हर एक खजाने के जमा करने का प्राप्ति का क्या सम्बन्ध है। और कैसे जमा करना है इस सब बातों पर फिर सुनायेंगे। समझा

समय तो हद का है ना। आते भी हद में हैं, अपना शरीर भी नहीं। लोन लिया हुआ शरीर, और है भी टैम्प्रेरी पार्ट का शरीर। इसलिए समय को भी देखना पड़ता है। बापदादा को भी हर बच्चे से मिलने में, हर बच्चे की मीठीमीठी रूहानी खुशबू लेने में मजा आता है। बापदादा तो हर बच्चे के तीनों काल जानते हैं ना। और बच्चे सिर्फ अपने वर्तमान को ज्यादा जानते हैं इसलिए कभी कैसे, कभी कैसे हो जाते हैं। लेकिन बापदादा तीनों कालों को जानने कारण उसी दृष्टि से देखते हैं कि यह कल्प पहले वाला हकदार है। अधिकारी है। अभी सिर्फ थोड़ा सा कोई हलचल में है लेकिन अभी-अभी हलचल अभी-अभी अचल हो ही जाना है। भविष्य श्रेष्ठ देखते हैं। इसलिए वर्तमान को देखते भी, नहीं देखते। तो हर एक बच्चे की विशेषता को देखते हैं। ऐसा कोई है जिसमें कोई भी विशेषता न हो! पहली विशेषता तो यही है जो यहाँ पहुँचे हो। और कुछ भी न हो फिर भी सम्मुख मिलने का यह भाग्य कम नहीं है। यह तो विशेषता है ना। यह विशेष आत्माओं की सभा है। इसलिए विशेष आत्माओं की विशेषता को बापदादा देख हर्षित होते हैं। अच्छा –

सदा ‘तुरंत दान महापुण्य’ के श्रेष्ठ संकल्प वाले, सदा कब को अब में परिवर्तन करने वाले, सदा समय के वरदान को जान वरदानों से झोली भरने वाले, सदा ब्रह्मा बाप को फॉलो कर ब्रह्मा बाप के साथ श्रेष्ठ राज्य-अधिकारी और श्रेष्ठ पद अधिकारी बनने वाले, सदा बाप के साथ कम्बाइण्ड रहने वाले, ऐसे सदा के साथी बच्चों को, सदा साथ निभाने वाले बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’

बृजइन्द्रा दादी से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात - चलाने वाला चला रहा है ना। हर सेकण्ड करावनहार निमित्त बनाए करा रहा है। करावनहार के हाथ में चाबी है। उसी चाबी से चल रही है। आटोमेटिक चाबी मिल जाती है और चलते फिरते कितना न्यारे और प्यारेपन का अनुभव होता है। चाहे कर्म का हिसाब चुक्तू भी कर रहे हैं लेकिन कर्म के हिसाब को भी साक्षी हो देखते हुए, साथी के साथ मौज में रहते हैं। ऐसे है ना! आप तो साथी के साथ मौज में हैं बाकी यह हिसाब किताब साक्षी हो चुक्तू कैसे हो रहा है वह देखते हुए भी मौज में रहने कारण लगता कुछ नहीं है। क्योंकि जो आदि से स्थापना के निमित्त बने हैं तो जब तक है तब तक बैठे हैं या चल रहे हैं, स्टेज पर हैं या घर में हैं लेकिन महावीर बच्चे सदा ही अपने श्रेष्ठ स्टेज पर होने के कारण सेवा की स्टेज पर हैं। डबल स्टेज पर हैं। एक स्वयं की श्रेष्ठ स्टेज पर हैं और दूसरी सेवा की स्टेज पर हैं। तो सारा दिन कहाँ रहती हो? मकान में या स्टेज पर? बेड पर बैठती, कोच पर बैठती हो या स्टेज पर रहती हो? कहाँ भी हो लेकिन सेवा की स्टेज पर हो। डबल स्टेज है। ऐसे ही अनुभव होता है ना! अपने हिसाब को भी आप साक्षी होकर देखो। इस शरीर से जो भी पिछला किया हुआ है वह चुक्तू कैसे कर रहा है, वह साक्षी होकर देखते। इसे कर्मभोग नहीं कहेंगे। भोगने में दुख होता है। तो भोगना शब्द नहीं कहेंगे क्योंकि दुखदर्द की महसूसता नहीं है। आप लोगों के लिए कर्मभोग नहीं है, यह भी कर्मयोग की शक्ति से सेवा का साधन बना हुआ है। यह कर्म भोगना नहीं, सेवा की योजना है। भोगना भी सेवा की योजना में बदल गई। ऐसे है ना! इसलिए सदा साथ की मौज में रहने वाली। जन्म से यही आशा रही - साथ रहने की। यह आशा भक्ति रूप में पूरी हुई, ज्ञान में भी पूरी हुई, साकार रूप में भी पूरी हुई और अभी अव्यक्त रूप में भी पूरी हो रही है। तो यह जन्म की आशा वरदान के रूप में बन गई। अच्छा - जितना साकार बाप के साथ रहने का अनुभव इनका है उतना और किसका नहीं। साथ रहने का विशेष पार्ट मिला यह कम थोड़े ही है। हरेक का भाग्य अपना-अपना है। आप भी कहो - ‘वाह रे मैं’! अच्छा –

आदि रत्न सदा सन शोव्ज़ फादर करने के निमित्त हैं। हर कर्म से बाप के चरित्र को प्रत्यक्ष करने वाले ‘दिव्य दर्पण’ हैं। दर्पण कितना आवश्यक होता है? अपना दर्शन या दूसरे का दर्शन कराने के लिए। तो आप सभी दर्पण हो बाप का साक्षात्कार कराने के लिए। जो विशेष आत्मायें निमित्त हैं उनको देख सभी को क्या याद आता है? बापदादा याद आ जाता है। बाप क्या करते थे, कैसे चलते थे...यह याद आता है ना। तो बाप को प्रत्यक्ष करने के दर्पण हो। बापदादा ऐसे विशेष बच्चों को सदा अपने से भी आगे बढ़ाते हैं। सिर का ताज बना देते हैं। सिर के ताज की चमकती हुई मणि हो। अच्छा –

सभी बच्चों को विदाई के समय यादप्यार देते हुए - बापदादा चारों तरफ के सभी बच्चों को यादप्यार भेज रहे हैं। हर एक स्थान के स्नेही बच्चे, स्नेह से सेवा में आगे बढ़ रहे हैं और स्नेह सदा आगे बढ़ाता रहेगा। स्नेह से सेवा करते हो इसलिए जिन्हों की सेवा करते हो वह भी बाप के स्नेही बन जाते हैं। सभी बच्चों को सेवा की मुबारक भी हो और मेहनत नहीं लेकिन मुहब्बत की मुबारक हो। क्योंकि नाम मेहनत है लेकिन है मुहब्बत। इसलिए जो याद में रहकर सेवा करते हैं वह अपना वर्तमान और भविष्य जमा करते हैं। इसलिए अभी भी सेवा की खुशी मिलती है और भविष्य में भी जमा होता है। सेवा नहीं की लेकिन अविनाशी बैंक में अपना खाता जमा किया। थोड़ी सी सेवा और सदाकाल के लिए खाता जमा हो जाता। तो वह सेवा क्या हुई? जमा हुआ ना! इसलिए सभी बच्चों को बापदादा यादप्यार भेज रहे हैं। हरेक अपने को समर्थ आत्मा समझ आगे बढ़ो तो समर्थ आत्माओं की सफलता सदा है ही। हरेक अपने-अपने नाम से विशेष यादप्यार स्वीकार करना (देहली पाण्डव भवन में टैलेक्स लगा है) देहली निवासी पाण्डव भवन के सभी बच्चों को विशेष सेवा की मुबारक। क्योंकि यह साधन भी सेवा के लिए ही बने हैं। साधन की मुबारक नहीं, सेवा की मुबारक हो। सदा इन साधनों द्वारा बेहद की सेवा, अविनाशी करते रहेंगे। खुशी-खशी से विश्व में इस साधन द्वारा बाप का सन्देश पहुँचाते रहेंगे। इसलिए बापदादा देख रहे हैं कि बच्चों की सेवा का उमंग उत्साह खुशी कितनी है। इसी खुशी से सदा आगे बढ़ते रहना। पाण्डव भवन के लिए सभी विदेशी खुशी का सर्टिफिकेट देते हैं इसको कहा जाता है बाप समान मेहमान निवाजी में सदा आगे रहना। जैसे ब्रह्मा बाप ने कितनी मेहमान निवाजी करके दिखाई। तो मेहमान निवाजी में फॉलो करने वाले बाप का शो करते हैं। बाप का नाम प्रत्यक्ष करते हैं। इसलिए बापदादा सभी की तरफ से यादप्यार दे रहे हैं।

अमृतबेले 6 बजे बापदादा ने फिर से मुरली चलाई तथा यादप्यार दी

25-03-85

आज के दिन सदा अपने को डबल लाइट समझ उड़ती कला का अनुभव करते रहना। कर्मयोगी का पार्ट बजाते भी कर्म और योग का बैलेन्स चेक करना कि कर्म और याद अर्थात् योग दोनों ही शक्तिशाली रहे? अगर कर्म शक्ति- शाली रहा और याद कम रही तो बैलेन्स नहीं। और याद शक्तिशाली रही और कर्म शक्तिशाली नहीं तो भी बैलेन्स नहीं। तो कर्म और याद का बैलेन्स रखते रहना। सारा दिन इसी श्रेष्ठ स्थिति में रहने से अपनी कर्मातीत अवस्था के नजदीक आने का अनुभव करेंगे। सारा दिन कर्मातीत स्थिति वा अव्यक्त फरिश्ते स्वरूप स्थिति में चलते फिरते रहना। और नीचे की स्थिति में नहीं आना। आज नीचे नहीं आना, ऊपर ही रहना। अगर कोई कमज़ोरी से नीचे आ भी जाए तो एक दो को स्मृति दिलाए समर्थ बनाए सभी ऊँची स्थिति का अनुभव करना। यह आज की पढ़ाई का होम वर्क है। होम वर्क ज्यादा है, पढ़ाई कम है। ऐसे सदा बाप को फॉलो करने वाले, सदा बाप समान बनने के लक्ष्य को धारण कर आगे बढ़ने वाले, उड़ती कला के अनुभवी बच्चों को बापदादा का दिल व जान, सिक व प्रेम से यादप्यार और गुडमोर्निंग।

प्रश्न- सदा डबल लाइट स्थिति का अनुभव कैसे करें?

उत्तर- बाप का बनना अर्थात् डबल लाइट बनना। क्योंकि बाप के बनते ही सब बोझ बाप को दे दिया। सदा बाप के हो ना! सब कुछ बाप को दे दिया। तनमन- धन-सम्बन्ध सब कुछ सरेन्डर कर दिया। फिर बोझ काहे का! अभी यही याद रखना - जब सब कुछ बाप का हो गया तो सदा डबल लाइट बन गये। अच्छा